नाक के अग्र भाग पर दृष्टि टिकाना – गीता का ध्यान रहस्य

श्रीकृष्ण ध्यान मुद्रा में, नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि टिकाए हुए, गीता में बताए ध्यान रहस्य का चित्र
Focusing on the Tip of the Nose – The Meditation Secret of the Bhagavad Gita

भाग 1 – भूमिका: जब श्रीकृष्ण ने मौन में उतरने की राह दिखाई

ध्यान कर, अर्जुन! और ऐसा ध्यान, जहाँ तू अपने स्वरूप से भी परे चला जाए।

श्रीमद्भगवद् गीता में जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योग और ध्यान का उपदेश दिया, वह केवल शब्दों की लहर नहीं थी — वह एक मौन में उतरने का द्वार था।

बहुत से लोग गीता को केवल कर्मयोग या भक्ति का ग्रंथ मानते हैं,

लेकिन इसके छठे अध्याय में कृष्ण ध्यान का सूक्ष्मतम सूत्र देते हैं 

जहाँ ध्यान की दृष्टि, साँस की लय, और मौन की स्थिति — तीनों मिलकर एक आंतरिक यात्रा शुरू करते हैं।

 “समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥

– गीता 6.13

यहाँ कृष्ण कहते हैं:

"अपनी दृष्टि को नाक के अग्र भाग पर टिकाओ, और दिशाओं की ओर मत देखो।"

यानी...

बाहरी दुनिया से दृष्टि हटाओ, और भीतर की मौन दुनिया में प्रवेश करो।

यह कोई कवितामयी कल्पना नहीं —

बल्कि ध्यान की वैज्ञानिक और योगिक परंपरा का एक अत्यंत सूक्ष्म मार्ग है।

त्राटक, विपश्यना, तांत्रिक साधना — इन सभी में यह सूत्र झलकता है।

इस लेख में हम उसी सूत्रधार श्रीकृष्ण के बताए मार्ग पर चलेंगे,

जहाँ नाक के सिरे पर दृष्टि टिकाना, आत्मा की झलक बन जाता है।

 इस भूमिका में आपने जाना:

गीता में ध्यान का आरंभ कहाँ होता है

श्रीकृष्ण की मौन भाषा का संकेत

नासिकाग्रं स्वं” श्लोक की पहली झलक

अब अगले भाग में:

हम देखेंगे कि ये श्लोक वास्तव में क्या कहता है,

और ध्यान की दृष्टि को वहाँ क्यों टिकाने को कहा गया।

भाग 2 – गीता में ध्यान का सटीक श्लोक

 “नासिकाग्रं स्वं” — श्रीकृष्ण का ध्यान सूत्र

श्रीमद्भगवद्गीता का अध्याय 6, श्लोक 13:

 “समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥

(श्रीमद्भगवद्गीता 6.13)

इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:

 “अपने शरीर, सिर और गर्दन को सीधा और स्थिर रखते हुए 

दृष्टि को अपनी नाक के अग्र भाग (नासिकाग्र) पर टिकाओ।

चारों दिशाओं में मत देखो — ध्यान भीतर टिकाओ।

यह कोई प्रतीकात्मक बात नहीं है।

यह है ध्यान की वो सूक्ष्म अवस्था, जहाँ दृष्टि बाह्य जगत से हटकर साक्षीभाव की ओर बढ़ती है।

 श्लोक का गूढ़ अर्थ:

समं कायशिरोग्रीवं” — शरीर, सिर और गर्दन को एक रेखा में स्थिर रखना।

धारयन् अचलं स्थिरः” — मन और तन दोनों को स्थिर करना।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं” — दृष्टि को अपनी नाक के अग्र भाग पर टिकाना।

दिशश्चानवलोकयन्” — इंद्रियों को बाहर की दिशाओं में भटकने न देना।

 यहाँ “नाक का सिरे” कोई बाहरी बिंदु नहीं,

बल्कि वह मध्यबिंदु है — जहाँ से ध्यान भीतर की यात्रा शुरू करता है।

यह विधि क्यों?

नाक के अग्र भाग पर दृष्टि टिकाने से:

आँखें अर्द्धमुद्रा में रहती हैं (न पूरी खुली, न बंद) — जिससे मन स्थिर होता है।

मन का भटकाव कम होता है — क्योंकि दृष्टि एक बिंदु पर टिकती है।

यह त्राटक, विपश्यना और सूक्ष्म ध्यान की प्रारंभिक स्थिति भी बनती है।

बिना किसी कल्पना, बिना किसी मूर्ति

सिर्फ अपनी दृष्टि और श्वास के साथ एक बिंदु पर टिकना

यही है गीता के ध्यान का आरंभ।

इस भाग में आपने जाना:

गीता 6.13 श्लोक का शाब्दिक और भावार्थ

नासिकाग्र दृष्टि का योगिक विज्ञान

ध्यान और एकाग्रता का यह प्राचीन सूत्र।

भाग 3 – योगिक विज्ञान: क्यों 'नाक के अग्र भाग' पर टिकती है ध्यानदृष्टि?

 “नासिकाग्र दृष्टि” का रहस्य – ध्यान की पहली सीढ़ी

जब श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं,

"संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं",

तो यह कोई साधारण दृष्टि का निर्देश नहीं है,

बल्कि यह है — चित्त की दिशा बदलने का पहला सूत्र।

विज्ञान की दृष्टि से:

जब आँखें एक बिंदु पर टिकती हैं (विशेषतः नाक के सिरे पर),

तो मस्तिष्क में अल्फा वेव्स (शांत तरंगें) उत्पन्न होती हैं।

यह स्थिति मन को ध्यान की लहर में लाती है।

इससे चित्त धीरे-धीरे प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर मुड़ता है।

योग परंपरा में “नासिकाग्र दृष्टि”:

1. त्राटक:

योग में “त्राटक” एक विशेष क्रिया है,

जहाँ दृष्टि को एक बिंदु पर स्थिर किया जाता है।

नासिकाग्र त्राटक में वही दृष्टि नाक के सिरे पर टिकती है।

2. चित्त की स्थिरता:

दृष्टि जहाँ टिकती है, वहाँ चित्त भी टिकता है।

और जब चित्त रुकता है, तब आत्मा की झलक संभव होती है।

3. नेत्रों की स्थिति:

आंखें न पूरी खुली होती हैं, न पूरी बंद।

इसे कहा जाता है – “मध्यदृष्टि” या “भाव मुद्रा”,

जो सहज समाधि की ओर ले जाती है।

ध्यान की सीढ़ी:

नासिकाग्र दृष्टि = स्थिरता

स्थिरता = विचारों का शमन

विचारों का शमन = आत्मा की अनुभूति

इस प्रकार, “नाक के सिरे पर ध्यान” लगाना कोई अंधश्रद्धा नहीं,

बल्कि यह है – अंतर्यात्रा का द्वार।

जहाँ दृष्टि ठहरती है, वहीं मन रुकता है।

और जहाँ मन रुकता है, वहाँ आत्मा प्रकट होती है।

इस भाग में आपने जाना:

नासिकाग्र दृष्टि” का वैज्ञानिक और योगिक रहस्य

त्राटक और ध्यान में इसका स्थान

चित्त स्थिर करने की पहली विधि।

भाग 4 – अर्जुन, दृष्टि और आत्मा की दिशा (optional)

जब दृष्टि बाहर से भीतर मुड़ती है

गीता में अर्जुन युद्धभूमि में खड़ा है —

पर उसका मन विचलित है।

उसकी दृष्टि बाहर देख रही है — रिश्ते, धर्म, कर्तव्य, मोह...

तब श्रीकृष्ण कहते हैं:

नासिकाग्रं स्वं” — दृष्टि को मोड़ो, भीतर देखो।

बाहरी युद्ध नहीं, भीतर का युद्ध देखो —

वही युद्ध जो हर मनुष्य के भीतर चलता है।

दृष्टि की दिशा = जीवन की दिशा

 “जहाँ दृष्टि बाहर जाती है, वहाँ भ्रम है।

जहाँ दृष्टि भीतर मुड़ती है, वहाँ आत्मा है।

ध्यान का मूल यही है —

इंद्रियों को वापस बुलाना।

ना देखो दुनिया को —

ना सोचो अतीत–भविष्य को —

बस देखो स्वयं को,

नाक के सिरे से — जैसे भीतर उतरने का द्वार खुल रहा हो।

अर्जुन की तरह हम भी

हर दिन — हम भी अर्जुन जैसे होते हैं:

निर्णयों के युद्ध में

भावनाओं के भ्रम में

कर्तव्य और स्वार्थ के द्वंद्व में

और फिर कोई “कृष्ण” भीतर से कहता है:

स्थिर हो जाओ, दृष्टि भीतर लाओ।

इस भाग में आपने जाना:

अर्जुन की दृष्टि का परिवर्तन आत्मदर्शन की शुरुआत है

नासिकाग्र दृष्टि” का प्रयोग युद्ध के भीतर शांति खोजने के लिए

जब दृष्टि भीतर मुड़ती है, तब आत्मा सामने आती है।

भाग 5 – तांत्रिक और बौद्ध ध्यान में समान सूत्र

"नासिका पर दृष्टि" — ध्यान का प्राचीन सेतु

जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा —

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं”,

तो वो केवल एक योगसूत्र नहीं था,

बल्कि एक ऐसी ध्यानधारा की शुरुआत थी

जो बाद में तांत्रिक, बौद्ध, और योगिक परंपराओं में भी गूंजती रही।

विपश्यना और त्राटक — दृष्टि की साधना

विपश्यना ध्यान, जिसे बुद्ध ने प्रचारित किया,

उसकी जड़ें भी “दृष्टि के माध्यम से भीतर देखने” में हैं।

हालांकि वहाँ ध्यान वस्तुओं पर है —

लेकिन धीरे-धीरे वह भी साक्षीभाव और शरीर के पार पहुँचता है।

त्राटक ध्यान

जहाँ दृष्टि एक बिंदु पर स्थिर होती है,

वह चाहे दीपक की लौ हो या फिर नाक का सिरा,

लक्ष्य एक ही है:

मन को एकाग्र करना

इंद्रियों को वापसी की ओर मोड़ना

तांत्रिक परंपरा में नासिका-ध्यान

तंत्र में भी ऐसी अनेक विधियाँ मिलती हैं,

जहाँ साधक दृष्टि को मध्य भृकुटी या नाक के अग्रभाग पर टिकाता है।

यह कोई अलग स्कूल नहीं है,

बल्कि वही आंतरिक विज्ञान, जिसे श्रीकृष्ण ने बीज रूप में दिया था।

 "जहाँ दृष्टि स्थिर होती है, वहीं से प्रवेश का द्वार खुलता है।"

 कृष्ण से बुद्ध तक: ध्यान की रेखा

श्रीकृष्ण: दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर टिकाओ

बुद्ध: विपश्यना से अपने भीतर देखो

तंत्र: त्राटक और नासिका ध्यान से चेतना को स्थिर करो

तीनों परंपराएँ अलग प्रतीत होती हैं —

पर भीतर जाने का द्वार एक ही है:

दृष्टि का स्थिरीकरण

मन का लय में उतरना

मौन से मिलन

इस भाग में आपने जाना:

नाक के अग्रभाग पर दृष्टि” की परंपरा केवल गीता तक सीमित नहीं है

त्राटक, विपश्यना, और तांत्रिक योग में भी यह सूत्र गहराई से प्रयुक्त होता है

श्रीकृष्ण से बुद्ध तक, ध्यान की रेखा अदृश्य रूप से जुड़ी है।

भाग 6 – आधुनिक ध्यान में इसकी जगह

नाक के अग्र भाग पर दृष्टि” — आज भी उतना ही गहन

वो युग अलग था — जब जीवन सरल था,

शब्द कम थे और मौन गहरा था।

पर आज?

शोर है, स्क्रीन है, सूचना की बाढ़ है।

तो क्या आज के व्यक्ति के लिए श्रीकृष्ण की ध्यान विधि संभव है?

उत्तर है — हाँ, और शायद पहले से भी अधिक ज़रूरी।

क्या आज के लोग इसे कर सकते हैं?

नाक के अग्र भाग पर दृष्टि टिकाना” —

यह न कोई कठिन आसन है,

न किसी विशेष जगह की माँग करता है।

बस दो चीज़ें चाहिए:

1. इच्छा

2. क्षण भर की मौन तैयारी

यह ध्यान उन लोगों के लिए बिल्कुल उपयुक्त है —

जो बिजी जीवन में भी शांति की साँस लेना चाहते हैं।

लाभ क्या हैं?

  • मन तुरंत भीतर लौटता है
  • एकाग्रता बढ़ती है
  • धीरे-धीरे सोच की दौड़ थमती है
  • नींद सुधरती है, तनाव घटता है

और सबसे अहम

  • आत्मा की उपस्थिति महसूस होने लगती है

चुनौतियाँ क्या हैं?

  • शुरुआत में दृष्टि टिकाना कठिन लग सकता है
  • मन बार-बार भटकेगा
  • कुछ लोग आँखों में तनाव महसूस कर सकते हैं
लेकिन याद रखें

ध्यान अभ्यास है, परफॉर्मेंस नहीं।

जैसे शरीर को चलाना सीखते हैं,

वैसे ही ध्यान भी धीरे-धीरे सहज होता है।

छोटे अभ्यास से शुरुआत करें:

1. आराम से बैठें, पीठ सीधी रखें

2. 1 मिनट के लिए नाक के अग्र भाग पर ध्यान टिकाएं

3. कोई विचार आए, उसे जाने दें, पकड़ें नहीं

4. रोज़ 1-2 मिनट से शुरू करें — फिर धीरे-धीरे समय बढ़ाएं

 “मन को खींचो मत, आमंत्रित करो — ध्यान अपने आप उतरता है।

इस भाग में आपने जाना:

यह विधि आधुनिक जीवन में भी उतनी ही उपयोगी है

इसके लाभ मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक — तीनों स्तरों पर हैं

साधारण शुरुआत से असाधारण शांति तक का मार्ग यही है।

अब अगला पड़ाव...

भाग 7 – आत्म साक्षात्कार की ओर एक साधन

जहाँ ये ध्यान हमें ‘मैं’ के पार ले जाता है।

श्रीकृष्ण का ध्यानमग्न स्वरूप, नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि केंद्रित, भगवद्गीता में वर्णित योग विधि का चित्रण
Focusing on the Tip of the Nose – The Meditation Secret of the Bhagavad Gita

भाग 7 – आत्म साक्षात्कार की ओर एक साधन

"नाक के अग्र भाग पर दृष्टि" — देह से परे ‘मैं’ की झलक

नासिकाग्रं स्वं” —

कृष्ण का यह सूत्र सिर्फ ध्यान की तकनीक नहीं,

बल्कि एक भीतर उतरने का द्वार है।

जब हम इस पर दृष्टि टिकाते हैं,

तो धीरे-धीरे जगत धुंधला और स्वभाव मौन हो जाता है।

शरीर से हटकर “मैं” की ओर

जब आप नाक के अग्र भाग को एकटक देखते हैं,

तो कुछ ही क्षणों में महसूस होता है कि…

बाहरी दुनिया पीछे छूट रही है

साँस का आना-जाना एक संगीत बन रहा है

और भीतर कोई "मैं हूँ" — जो न सोचना है, न शरीर है

यह अनुभव कुछ क्षणों का हो सकता है —

लेकिन वही क्षण साक्षीभाव का प्रारंभ है।

यह ध्यान कैसे हमें 'साक्षीभाव' तक ले जाता है?

साक्षीभाव यानी:

मैं देख रहा हूँ… पर जुड़ा नहीं हूँ

मैं सोच को देख रहा हूँ… पर सोच नहीं हूँ

मैं शरीर की हरकत को देख रहा हूँ… पर शरीर नहीं हूँ

नाक पर दृष्टि इस ‘साक्षी’ को जागृत करती है।

क्योंकि जब आँखें बाहर देखना बंद करती हैं,

तब ध्यान भीतर देखने लगता है।

मौन में उतरने का सहज द्वार

यह कोई उग्र ध्यान नहीं है,

न ही कोई बंधन या नियम।

यह तो बस…

कुछ मिनट एक जगह बैठना

साँस को देखना

और फिर…

जो घटे, उसे घटने देना।

और इसी घटने में —

आत्मा धीरे से दस्तक देती है।

क्या आपने कभी महसूस किया…

एक क्षण ऐसा आता है जब कोई विचार नहीं होता

और फिर भी — आप वहाँ होते हैं

न आप बोल रहे होते हैं, न सोच रहे — फिर भी आपका होना वहाँ मौजूद होता है

यही “अहं” नहीं

अहम् ब्रह्मास्मि की पहली झलक है।

इस भाग में आपने जाना:

यह विधि केवल ध्यान नहीं — आत्मा की ओर एक प्रवेश द्वार है

नाक पर दृष्टि’ से हम साक्षीभाव में प्रवेश करते हैं

यहीं से शुरू होती है आत्मा की अनुभूति — देह से परे, शब्दों से परे

भाग 8 – निष्कर्ष: ध्यान, मौन और कृष्ण की सीख

नासिकाग्रं स्वं” – बाहर नहीं, भीतर देखने की शुरुआत

भगवद् गीता के श्लोकों में जहाँ युद्ध, धर्म और आत्मा की बातें हैं,

वहीं ध्यान का यह गूढ़ सूत्र भी छिपा है —

नाक के अग्र भाग पर दृष्टि टिकाना।

यह मात्र एक ध्यान नहीं,

बल्कि एक आंतरिक क्रांति है।

यह शुरुआत है —

बाहरी दुनिया से हटकर, आत्मा की दुनिया में प्रवेश की।

ध्यान सिर्फ तकनीक नहीं, प्रवृत्ति है

ध्यान कोई एक बार का प्रयास नहीं —

यह जीवन का ढंग बन सकता है।

जब हम कुछ भी कर रहे हों —

चलना, बोलना, सुनना —

उसमें भी यह ‘दृष्टा’ बना रह सकता है।

कृष्ण ने जो कहा, वह ध्यान के माध्यम से जीवन जीने की कला है।

कृष्ण ने मौन को भी शब्दों से व्यक्त किया

गीता में जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया —

 "समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥"

(अध्याय 6, श्लोक 13)

तो वे केवल ध्यान की मुद्रा नहीं बता रहे थे,

वे अर्जुन को भीतर की दृष्टि देना चाह रहे थे।

कि युद्ध हो या जीवन,

शांति बाहर नहीं, अंदर है।

मौन में प्रवेश

नाक के अग्रभाग पर दृष्टि टिकाना…

कुछ नहीं बोलना…

साँस को देखना…

और फिर —

जो भीतर है, उसे घटने देना।

यही मौन…

यही ध्यान…

यही आत्मा का प्रवेशद्वार है।

अंतिम शब्द:

ध्यान कोई कर्मकांड नहीं —

यह “साक्षी” होने का साहस है।

कृष्ण की ये विधि बताती है कि

जब हम बाहर देखना बंद करते हैं,

तो अंदर की आँख खुलती है।

ध्यान करो — नाक की ओर नहीं, स्वयं की ओर।

वही कृष्ण का ध्यान है।

जय श्रीकृष्ण।

जय ध्यान।

जय साक्षीभाव।


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